यह टीबी की पुरानी बीमारी की मूल पहचान है। शोध के लिए मृतकों के स्वजन ने सहमति दी थी। माइक्रोबायोलाजी लैब में इनके सैंपलों की कल्चर और पीसीआर (पालिमर चेन रिएक्शन) जांच में पता चला कि 11 टीबी से पीड़ित थे। चार अन्य में भी टीबी का बैक्टीरिया (माइकोबैक्टीरियम) मिला, पर वह टीबी से प्रभावित नहीं थे, जिसे नान ट्यूबरकुलस माइकोबैक्टीरियम (एनटीएम) कहा जाता है।
743 में 11 यानी लगभग डेढ़ प्रतिशत में यह बीमारी मिली, पर यदि चिपकी छाती वाले सभी शवों में पता लगाया जाता तो आंकड़ा दो प्रतिशत से अधिक हो सकता था। चिपके फेफड़े वालों में 82 में 11 यानी 13 प्रतिशत टीबी से संक्रमित मिले।
जिन शवों में टीबी का पता चला। वह आमजन से ही दुर्घटना, जहर खाकर खुदकुशी, फांसी अन्य मेडिकोलीगल केस के थे। इससे साफ है कि आम जनसंख्या में भी दो प्रतिशत से अधिक लोग इस बीमारी से पीड़ित होंगे, पर उन्हें पता नहीं है।
इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है संक्रमित पाए गए 11 में से छह को कोई लक्षण नहीं और पांच को पिछले कुछ दिन से हल्की खांसी थी। पीड़ितों में नौ पुरुष और दो महिलाएं थीं, जिनकी उम्र 22 से 65 वर्ष तक थी।
यह शोध फरवरी 2025 में फोरेंसिक साइंस इंटरनेशनल में प्रकाशित हुआ है। शोधकर्ताओं का दावा है कि चिपके फेफड़ों पर इसके पहले अमेरिका में 1954 में अध्ययन हुआ था।
यह शोध फोरेंसिक मेडिसिन एवं टाक्सिकोलाजी विभाग की प्राध्यापक डॉ. जयंती यादव, माइक्रोबायोजलाजी विभाग के प्राध्यापक डॉ. शशांक पुरवार, पैथोलाजी एवं लैब मेडिसिन विभाग की अतिरिक्त प्राध्यापक डॉ. उज्जवल खुराना, जूनियर रिसर्च फेलो (जेआरएफ) डॉ. शुभम रिछारिया ने किया।
गांधी मेडिकल कालेज, भोपाल के छाती व श्वास रोग विभाग के सह प्राध्यापक डॉ. पराग शर्मा का कहना है कि एक संक्रमित व्यक्ति साल में 10 से 15 लोगों को संक्रमित कर सकता है। मरीज सामने नहीं आते जो अभियान में बड़ी चुनौती है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुमान के अनुसार वर्ष 2015 में प्रति एक लाख जनसंख्या पर 237 लोगों को ये बीमारी थी, 2023 में 17.7 प्रतिशत घटकर 195 और टीबी से मौतें वर्ष 2015 में प्रति एक लाख जनसंख्या पर 28 से घटकर 2023 में 22 हो गई हैं। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वर्ष 2025 तक टीबी मुक्त भारत का लक्ष्य दिया है।